शहर के सपाट रास्तों पर
बोझलता लादे
दफ्तर जाते
मैं अक्सर ही सोचता हूं…
क्यूं न आज मुड़ जाऊं कहीं और
चल पड़ूं किसी सर्पिल कच्चे रास्ते पर
जिसके छोर पर कोइ नदी
बस मेरी ही प्रतीक्षा में बैठी है…
चल पड़ूं किसी सर्पिल कच्चे रास्ते पर
जिसके छोर पर कोइ नदी
बस मेरी ही प्रतीक्षा में बैठी है…
और फिर
भीगी हवाओं की कानाफूसी में
खोये रहस्य को समझूं...
या फिर लहरों की कल-कल में
छुपे संगीत में खो जाऊं…
भीगी हवाओं की कानाफूसी में
खोये रहस्य को समझूं...
या फिर लहरों की कल-कल में
छुपे संगीत में खो जाऊं…
तो कभी
किसी बहती ठन्डी धार में पाँव डुबा
बैठा रहूं घन्टों
बेसुध.. बेफिक्र…
बैठा रहूं घन्टों
बेसुध.. बेफिक्र…
तो कभी
काग़ज़ी कस्तियां बना
बहाता चला जाऊं
फाइल के एक एक पन्ने की…
बहाता चला जाऊं
फाइल के एक एक पन्ने की…
पानी की परतों में
खिसलती मछलियों को
देखता रहूं एकटक
बेझपक…
खिसलती मछलियों को
देखता रहूं एकटक
बेझपक…
कभी, पानी पीने आये
किसी मेमने के पीछे
भागूं इधर उधर
कुछ उसी मेमने सा…
किसी मेमने के पीछे
भागूं इधर उधर
कुछ उसी मेमने सा…
या
पानी के जिद्दी फलक को
तोड़ता रहूं बार बार
पत्थर उछाल किनारे से…
पानी के जिद्दी फलक को
तोड़ता रहूं बार बार
पत्थर उछाल किनारे से…
या फिर
किसी तरकुल के इर्द-गिर्द
ढूँढता फिरूं एक बचपन
जो मैं सालों पहले यहीं कहीं छोड़ आया था…
- पुष्कर
किसी तरकुल के इर्द-गिर्द
ढूँढता फिरूं एक बचपन
जो मैं सालों पहले यहीं कहीं छोड़ आया था…
- पुष्कर