Hits:

Wednesday, March 17, 2010

तेरी ही तलाश


आड़ी तिरछी रेखाओं में तुम्हें ही खीचने की कोशिश,
टूटे बिखरे शब्दों में तुम्हें ही समेटने का प्रयास,

दिल की बेडौल शख़्त चट्‍टानों में तुम्हें ही तराशने की ज़िद,
हर पल, हर क़तरे, हर टुकड़े में करता बस तेरी ही तलाश,

यूं तो बुने हैं कल्पनाओं के कितने ही पुलिन्दे,
पर हर पन्ने-पन्ने पे बिखरा बस तेरा ही ख़याल,

हवा की हर हिलोर, जैसे बिखरा हो तेरा ही स्पर्श, या जैसे
बरसाती हवाओं में उड़ती छतरी से जूझती तेरी कमसिन सी क़शिश

पहली बारिश की सौंधियाई मिट्टी में तेरी ही यादों की महक,
और हर ख़्वाब हर स्वप्न में सजते बस तेरी ही स्मृतियों के मंज़र,

बारिश की हर बूँद में तेरे ही संग भीगने की ख़्वाहिश,
पलकों की हर झपक में बस तेरी ही झलकियों की चाहत,

चंचल लहरों की कल-कल में खोजता तेरी ही खिलखिलाहट,
ढूंढ़ता हूं, सन्नाटों की साँ-साँ तोड़ तेरे ही चले आने की आहट,

यूं तो मैं जानता हूँ ऐ अजनबी तू यहीं है, यहीं कहीं है...
फिर भी, हर लम्हा, हर क़तरे, हर टुकड़े में.. तेरी ही...बस तेरी ही तलाश... 

Thursday, February 11, 2010

चाहत एक रास्ते की

किसी चमचमाती मन्ज़िल की
चाहत नहीं मुझे...
उपलब्धियों के जगमगाते टुकड़े
भी मुझे नहीं लुभाते...
ख़्वाहिश नहीं की मेरा नाम
उकेरा जाए इतिहास के किन्ही पत्थरों पर...
और नाही जीतना चाहता हूं मैं
स्वामित्व के ये ऊँचे खोखले पहाड़...
मैं तो बस एक राही हूं
चाहत है महज एक रास्ते की...

आत्मा

क्यूं जब जब मैं ख़ुदगर्ज़ होना चाहता हूं
तुम अपनी मूक आवाज़ में मुझे धिक्करती हो

क्यूं जब जब ये तनहाई मुझे कचोटती है
तुम पहलु पे आकर बैठ जाती हो

क्यूं जब जब वक़्त के ये गहरे घाव तिलमिलाते हैं
तुम अपनी स्पर्शविहीन अन्गुलियों से उन्हे सहलाती हो

क्यूं जब जब खोखले बेडौल से होने लगते हैं आदर्श
तुम उन्हे एक आकार देती हो

और जब जब सिमटने लगती है मेरी परिभाषा
क्यूं तुम उसे एक विस्तार देती हो

शायद इसलिये तो, मैं जानता हूं मैं मरा नहीं
क्युंकि तुम जो जीवित हो

Wednesday, January 20, 2010

चोरी का एक दिन

सुबह की भागमभाग में
शहर के सपाट रास्तों पर
बोझलता लादे
दफ्तर जाते
मैं अक्सर ही सोचता हूं…

क्यूं न आज मुड़ जाऊं कहीं और
चल पड़ूं किसी सर्पिल कच्चे रास्ते पर
जिसके छोर पर कोइ नदी
बस मेरी ही प्रतीक्षा में बैठी है…

और फिर
भीगी हवाओं की कानाफूसी में
खोये रहस्य को समझूं...
या फिर लहरों की कल-कल में
छुपे संगीत में खो जाऊं…

तो कभी
किसी बहती ठन्डी धार में पाँव डुबा
बैठा रहूं घन्टों
बेसुध.. बेफिक्र…

तो कभी
काग़ज़ी कस्तियां बना
बहाता चला जाऊं
फाइल के एक एक पन्ने की…

पानी की परतों में
खिसलती मछलियों को
देखता रहूं एकटक
बेझपक…

कभी, पानी पीने आये
किसी मेमने के पीछे
भागूं इधर उधर
कुछ उसी मेमने सा…

या
पानी के जिद्‍दी फलक को
तोड़ता रहूं बार बार
पत्थर उछाल किनारे से…

या फिर
किसी तरकुल के इर्द-गिर्द
ढूँढता फिरूं एक बचपन
जो मैं सालों पहले यहीं कहीं छोड़ आया था…

- पुष्कर

Friday, October 31, 2008

ज़िन्दगानियां

ये रूखी धूमिल सडक
उम्र से कहीं लंबी
बेजान तनहा झुलसी
कुछ थकती कुछ भटकी
जाने कितनी कहानियां देखी है इसने...
कुछ छोटी कुछ बड़ी
कुछ आधी अधूरी
कुछ दिलचस्प यादगार
तो कुछ फीकी भूली बिसरी
जाने कितनी 'ज़िन्दगानियां' देखी है इसने...
कहानियां जो भटक गयीं
कहानियां जो बिखर गयीं
कहानियां जो रूठ गयीं
कहानियां जो टूट गयीं
कहानियां जो तोड़ दी गयीं
कहानियां जो मरोड़ दी गयीं
कहानियां जो शुरु न हो सकीं...

वक़्त की ये लंबी सड़क
इसकी भी एक कहानी है
जो बेधड़क बयान करती हैं
ये तमाम अजीबोगऱीब कहानियां...
- पुष्कर

विवशता

विकट विषाद्‍ से भरा,
असीम तम से घिरा,
जर्जरा दुखी निरा
गिरा, न मैं संभल सका।

चीरती वो वेदना,
अश्रुपूरित मेघना,
कचोटती उद्‍वेगना
सुना, न पर सुबक सका।

एक कुरेदती सी राग में,
अथाह‍ धिक्‌ विराग में,
विद्रोहपूरित आग में
जला, न पर दहक सका।

-पुष्कर