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Thursday, February 11, 2010

आत्मा

क्यूं जब जब मैं ख़ुदगर्ज़ होना चाहता हूं
तुम अपनी मूक आवाज़ में मुझे धिक्करती हो

क्यूं जब जब ये तनहाई मुझे कचोटती है
तुम पहलु पे आकर बैठ जाती हो

क्यूं जब जब वक़्त के ये गहरे घाव तिलमिलाते हैं
तुम अपनी स्पर्शविहीन अन्गुलियों से उन्हे सहलाती हो

क्यूं जब जब खोखले बेडौल से होने लगते हैं आदर्श
तुम उन्हे एक आकार देती हो

और जब जब सिमटने लगती है मेरी परिभाषा
क्यूं तुम उसे एक विस्तार देती हो

शायद इसलिये तो, मैं जानता हूं मैं मरा नहीं
क्युंकि तुम जो जीवित हो