किसी चमचमाती मन्ज़िल की
चाहत नहीं मुझे...
उपलब्धियों के जगमगाते टुकड़े
भी मुझे नहीं लुभाते...
ख़्वाहिश नहीं की मेरा नाम
उकेरा जाए इतिहास के किन्ही पत्थरों पर...
और नाही जीतना चाहता हूं मैं
स्वामित्व के ये ऊँचे खोखले पहाड़...
मैं तो बस एक राही हूं
चाहत है महज एक रास्ते की...
Thursday, February 11, 2010
आत्मा
क्यूं जब जब मैं ख़ुदगर्ज़ होना चाहता हूं
तुम अपनी मूक आवाज़ में मुझे धिक्करती हो
क्यूं जब जब ये तनहाई मुझे कचोटती है
तुम पहलु पे आकर बैठ जाती हो
क्यूं जब जब वक़्त के ये गहरे घाव तिलमिलाते हैं
तुम अपनी स्पर्शविहीन अन्गुलियों से उन्हे सहलाती हो
क्यूं जब जब खोखले बेडौल से होने लगते हैं आदर्श
तुम उन्हे एक आकार देती हो
और जब जब सिमटने लगती है मेरी परिभाषा
क्यूं तुम उसे एक विस्तार देती हो
शायद इसलिये तो, मैं जानता हूं मैं मरा नहीं
क्युंकि तुम जो जीवित हो
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